ग्रामीण प्रतिभाओं को उचित अवसर की जरूरत

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बिहार पत्रिका डिजिटल (Today Special Story) :  औपनिवेशिक काल में भारत की ग्रामीण क्षमताओं की बहुत क्षति हुई और इसका एक अधिक दीर्घकालीन असर यह हुआ कि आजादी के बाद भी एक अभिजातीय दृष्टिकोण बना रहा जिसमें अशिक्षित या कम शिक्षित, दूर-दूर के गांवों में बसे लोगों की क्षमताओं को कम करके आंका गया, उन्हें उचित मान्यता नहीं मिली और इन क्षमताओं के भली-भांति न उभर सकने के कारण देश की प्रगति भी अवरुद्ध हुई।

बाबा आमटे ने एक बार कहा था कि हमारे गांवों के निर्धन और अशिक्षितों को दान नहीं चाहिए, उन्हें तो बस उचित अवसर चाहिए। अवसर जहां उनकी छिपी हुई लेकिन युवावस्था में ही मुरझा रही प्रतिभाओं को खिलने का भरपूर अवसर मिल सके। एक ओर तो उच्च शिक्षा और डिग्री-डिप्लोमा तक पहुंचने के ग्रामीण निर्धन परिवारों के अवसर बहुत ही कम हैं, दूसरी ओर ऊंची डिग्रियों की सोच में कैद सरकारी तंत्र इससे वंचित गांववासियों को कोई बड़ी जिम्मेदारी देना भी नहीं चाहता।

नतीजा यह है कि जिन गांववासियों को अपने परिवेश और पर्यावरण की, गांव की वास्तविक स्थिति की सबसे बेहतर समझ है, उन्हें समस्याओं के समाधान से जुड़ने का बड़ा अवसर ही नहीं मिलता है। महज अकुशल मजदूर के रूप में ही उनका दोहन तंत्र करता रहता है। पर यदि ग्रामीण प्रतिभाओं में विास किया जाए, उन्हें उभरने का भरपूर अवसर दिया जाए, उन्हें बड़ी जिम्मेदारी दी जाएं तो ग्रामीण प्रतिभाएं कितनी आगे जा सकती हैं, इसका बेहद प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया है बेयरफुट कॉलेज ने।

इसका मुख्य केंद्र अजमेर जिले के तिलोनिया गांव में है। ‘बेयरफुट’ का शाब्दिक अर्थ ‘नंगे पैर’ है पर इस शब्द का उपयोग प्राय: विशेष संदर्भ में किया गया है। जब जगह-जगह देखा गया कि ऊंची डिग्रियों और तमाम ताम-झाम से लैस शहरी विशेषज्ञ गांवों और निर्धन परिवारों में ठीक से कार्य नहीं कर पा रहे हैं तो इन परिवारों में भली-भांति मिल-जुलकर कार्य कर सकने वाले व्यक्तियों को स्थानीय परिस्थितियों और जरूरतों के अनुकूल प्रशिक्षण दिया गया। चाहे इस प्रशिक्षण में ऊंची डिग्रियों के कोर्स का पूरा ज्ञान न था पर इसमें ग्रामीण परिवेश की अधिकांश जरूरतों को अधिक असरदार ढंग से पूरा करने की जानकारी थी। इस तरह का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले अधिकांश सदस्य भी प्राय: उसी परिवेश से थे जिसमें उन्हें काम करना था।

ऐसे तरह-तरह के प्रशिक्षार्थियों और कर्मियों को प्राय: ‘बेयरफुट’ का नाम दिया गया। उदाहरण के लिए चीन में स्वास्थ्य सुधार के महत्त्वपूर्ण और सफल दौर में ‘बेयरफुट’ डाक्टरों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी गई है। इसी तरह बेयरफुट वैज्ञानिक और बेयरफुट इंजीनियर भी समय-समय पर चर्चित हुए हैं। हालांकि इस कॉलेज का मुख्य परिसर तो अजमेर जिले के तिलोनिया गांव में है, पर यहां की सोच से प्रभावित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने देश के अनेक अन्य भागों में ‘बेयरफुट कॉलेज’ के उदाहरण से मिलते-जुलते संस्थान आरंभ किए हैं और इस तरह यह सोच व्यापक स्तर पर फैल सकी है।

प्रत्यक्ष तौर पर तो बेयरफुट कॉलेज इस क्षेत्र के लगभग 200 गांवों में कार्य करता है, पर अपने प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से और बेयरफुट कॉलेज द्वारा प्रेरित अन्य प्रयासों के माध्यम से इस संस्थान की पहुंच भारत में और भारत से बाहर भी (विशेषकर अफ्रीका महाद्वीप में) कहीं अधिक गांवों तक है। बेयरफुट कॉलेज का आरंभ सामाजिक कार्य और अनुसंधान केंद्र के नाम से 1972 में हुआ और पिछले वर्ष 2022 में इसकी यात्रा के 50 वर्ष पूरे हुए। इस संस्थान के कार्य का एक प्रमुख दिशा निर्देश रहा है कि अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझाने की गांववासियों की क्षमता में विास रखो और उसे प्रोत्साहित करो। पिछले चार दशकों के दौरान विभिन्न कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के अनुभव से बेयरफुट कॉलेज का गांववासियों की क्षमता में यह विास और दृढ़ हुआ है। बेयरफुट कॉलेज के निदेशक बंकर राय के अनुसार गांववासियों की इसी स्थिति को न समझने वाले बाहरी विशेषज्ञों के ज्ञान को गांवों पर जबरदस्ती लादने से बहुत क्षति हो चुकी है, तो भी इस कड़वे अनुभव से सबक नहीं लिए गए हैं। यदि गांववासियों विशेषकर निर्धन परिवारों को विास में लिया जाए और उनके ग्रासरूट के अनुभवों, स्थानीय जानकारी और क्षमताओं का सही से उपयोग किया जाए तो प्राय: समस्याओं के कहीं बेहतर और सस्ते समाधान मिलते हैं।

बेयरफुट कॉलेज ने इसी समझ से काम किया और गांव समुदाय के साधारण, कम शिक्षित महिला-फरुषों में से ही प्रशिक्षण द्वारा तैयार किए गए बेयरफुट शिक्षकों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, जल और सौर ऊर्जा इंजीनियरों की समझ और कुशलता में विास रखकर उन्हें बड़े कार्यक्रमों की जिम्मेदारी भी सौंपी जिन्हें उन्होंने अच्छी तरह निभाया। बेयरफुट सोच ग्रामीण निर्धन वर्ग की समझ, रचनात्मकता, व्यावहारिक ज्ञान और कठिन परिस्थितियों से जूझने की क्षमता में दृढ़ विास पर आधारित है। यही कारण है कि बंकर राय के शब्दों में, बेयरफुट कॉलेज में किसी व्यक्ति की परख उसकी डिग्री या डिप्लोमा से नहीं होती है अपितु उसकी ईमानदारी, निष्ठा, करुणा, व्यावहारिक कुशलता, रचनात्मकता, परिस्थितियों के अनुसार ढलने, सीखने-सुनने की तत्परता और सभी तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर कार्य करने की क्षमता से जानी जाती है। गांववासियों में विास का ही परिणाम था कि बेयरफुट कॉलेज के परिसर के डिजाइन बनाने का कार्य गांववासियों ने ही संभाला और इसके लिए अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया।

यहां सामान्य बिजली के स्थान पर केवल सौर ऊर्जा का उपयोग करना भी चुनौती भरा कार्य था क्योंकि इस परिसर को लगभग 500 लाइट, अनेक पंखे, फोटोकॉपियर, 30 कंप्यूटर और प्रिंटर, पंप सेट, छोटे टेलीफोन एक्सचेंज और दूध रखने के फ्रीजर की जरूरत थी। पर इस चुनौती को बेयरफुट सौर ऊर्जा इंजीनियरों ने सफलता से स्वीकार किया और यह परिसर सौर ऊर्जा से ही चलता है। बेयरफुट कॉलेज का प्रयास रहा है कि कमजोर और निर्धन समुदायों को अपने कार्य में प्राथमिकता दी जाए। कम पढ़े-लिखे और कभी-कभी तो निरक्षर व्यक्तियों को बेयरफुट कॉलेज ने पर्याप्त प्रशिक्षण देकर बेयरफुट शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर, हैंडपंप मैकेनिक आदि के रूप में तैयार किया है। इनकी सफलता ने गांव समुदायों की आत्म-निर्भरता और आत्मविास को बढ़ाया है।

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